अशोक धाम मंदिर लखीसराय

अतीत के दर्पण में अशोकधाम

श्री गणेश चतुर्थी बैशाख कृष्ण पक्ष,, सम्वत 2034 पर उदित हो भगवान भास्कर अपनी स्वर्णिम रश्मियों द्वारा रजौना ग्राम में पृथ्वी केगर्व से प्रकट हो रहा थ काले पत्थर का अनिर्वचनीय आनंद प्रदाता एक वृहद् आकार का शिवलिंग और सामने प्रत्यक्ष हो रही थी उसी में सम्माहित हजारों वर्षों से पूजित उक्त स्थान अध्यात्मिक धार्मिक महत्ता। यह एक विचित्र संयोग की बात है कि जिस तरह भगवान विष्णु द्वारा स्थापित रावण अराध्य ज्योर्तिलिंग हजारों में भी एक टीले पर खेल रहे चारवाहे अशोक एवं गजानंद द्वारा उक्त शिवलिंग को सबकेलिए प्रकाश में लाया गया।

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किसी के प्रकाश में आने कि तिथि पूर्व से ही प्रकृति द्वारा निर्धारित रहती है, हां कोई बहाना तो चाहिए ही। अशोक एवं गजानंद ने गुल्ली डंडा खेलने टीले पर गुच्ची खोदी थोड़ी गहराई में ही उन्हें काला चिकना पत्थर दिखाई पड़ा विस्मित हो उन्होंने सीताराम एवं अन्य के साथ खुदाई जारी रखी उसी के साथ शिवलिंग बाहर आने लगा तब तो गाँव के लोग भी भारी संख्या में पहुँच उत्साहित हो, श्रद्धा के साथ खुदाई करने तथा मिट्टी हटाने में लग गये। गहरी खुदाई के बाद जो परिणाम सामने आया वह था वृहद् आकार शिवलिंग जिसके अर्ध का व्यास 7.6 फीट का था तो स्वयं शिवलिंग का था 2 फीट। खुदाई करने वाले स्थानीय लोगों के अनुसार अर्धा के नीचे डमरू, नाग, त्रिशूल की आकृति उधृत थी। तदोपरान्त शिवलिंग गिर जाने के भय से लोगों ने पुनः मिट्टी से ढक दिया। सम्पूर्ण शिवलिंग मक्खन सम चिकनाई माँ काल के आँखों की चमक सदृश सुन्दर आभा बिखरने वाली है। अतः जनज न में ऐसी अध्यात्मिक लहर उत्पन्न हुई जिसमें शिवाराधना उसी समय से आरंभी हो गई। जो निरंतता एवं नित्य बढ़ती शिवोपासक संख्या के साथ आज तक जारी है। उक्त टीले के भाग पर कार्यानन्द शर्मा स्मारक महाविद्यालय, लखीसराय के विद्यार्थियों ने राष्ट्रीय सेवा येाजना के अन्तर्गत खुदाई की थी। जिसमें कई खंडित मूत्तियों स्तम्भाों के टूटे अंश की प्राप्ति हुई थी। जिन पर धार्मिक चित्र्ा उत्कीर्ण हैं। सर्वप्रथम अशोक की दृष्टि पड़ने एवं उसके सक्रिय हो शिवलिंग को बाहर से दृश्य बनाने के कारण उस स्थान का नाम लोगों ने ’’अशोक धाम’’ रख दिया फलतः बैजू (वैद्यनाथ धाम) की तरह अशोक भी इतिहास का एक अमर पात्र्ा बन गया। रावण द्वारा शिवलिंग लेते जाने के कारण देवघर के शिव जी रावणेश्वर महादेव नाम से चर्चित हुये। अशोक धाम के शिव का नाम लोगों ने शास्त्र्ज्ञ स्थानीय इतिहास ज्ञाता पंउित कामेश्वर पाण्डेय की सलाह पर इन्द्रमनेश्वर महादेव रखा। इस नाम से औचित्य से परिचित होने इतिहास पृष्ठों को खंगालना आवश्यक है। पाल वंश के शासक इन्द्रद्युमन पाल सुरंग मार्ग द्वारा चैकी जाता था, अपितु इस सुरंग का भी तक पता नहीं लगा हैं। हाँ जयनगर की उक्त पहाड़ी पर ईंट के असंख्य टुकड़े आवश्यक बिखरे पडे़ हैं और वहाँ भूमिगत दो कोठरियाँ भी विद्यमान है। इन्द्रद्युमन का उल्लेख प्रसिद्ध इतिहासकार डा॰ राधाकृष्णा चैधरी ने हिस्ट्री आॅफ बिहार नामक पुस्तक में किया है। इनके अनुसार इन्द्रद्युमन पाल वंश का अंतिम हिन्दू राजा था। जिसका राज्य खड़गपुर मुंगेर से जयनगर (जयनगर) तक था। इख्यितारउद्दीन बख्तियार खिलजी ने मुगेर खड़गपुर, जयनगर के शासक, इन्द्रद्युमन को पराजित किया था। मुंगेर गजेटियर में भी इन्द्रद्युमन के जयनगर पहाडबी स्थित भवन की चर्चा आई है। एल॰पी॰ श्रीवास्तव के भारत का इतिहास के अनुसार 1197 ई॰ में खिलजी ने बिहार-बंगाल पर आक्रमण किया था और इसी में उसने इन्द्रद्युमन को पराजित किया। पटना चुनिवर्सिटी जनरल जुलाई 1947 एवं डी॰जे॰ काॅलेज, बेगुसराय बुलेटिन एक वं दो में इन्द्रद्युमन की पराजय स्वीकार की गयी है।
जन श्रुति है कि इन्द्रद्युमन की पत्नी कामशास्त्र्ा परिभाषा के अनुसार पद्यिनी नायिका थी जो कमल पर स्नान करती थी। कहा जाता है कि पराजित होने के बाद इन्द्रद्युमन जगन्नाथपुरी चले गये और वहाँ जगन्नाथ के वत्र्तमान मंदिर का निर्माण कराया। इन दोनों स्ािानों पर मिलने वाले मूत्तियों के शिल्प एवं व्यवहार में लाये गये पत्थरों की एकरूपता इसका स्पष्ट प्रमाण है फिर भी कोई ठोस प्रमाण उपलब्ध नहीं है।

इसी पाल वंश में एक राजा हुए थे धर्मपाल (770 ई॰ से 810 ई॰) जो बौद्धानुयायी थे और बौद्ध दर्शन के विशेष अध्ययन, प्रचार एवं प्रसार के उद्देश्य से विक्रमशिला विश्वविद्यालय की स्थापना भी उन्होंने की थी। उस राजा के समय बौद्धों का मनोबल बहुत ऊँचाई पर पहुँच गया, जिसका परिणाम हिन्दू देवी-देवताों की मूर्तियों मंदिरों को अपने विध्वंस में भुगतना पड़ा। इस समय अनेक मंदिरों से देवी-देवताओं की मूर्तियों को हटाकर नष्ट कर वहाँ बुद्ध की मूर्तियाँ स्थापित की गयी। किन्तु इसी वंश में 871 ई॰ में एक और राज हुये नारायण पल जो पूर्णतः हिन्दू मतानूयायी थे। उसने अपनी राजधानी मोदागिरी (मुंगेर) में बनाई। उसके एक ताम्रपत्र्ा से ज्ञात होता है कि उसने मुंगेर से श्रीनगर (पाटिलीपुत्र्ाा) के बीच एक हजार मंदिर बनवाया। संभव है, उन मंदिरों में चैकी का भी मंदिर हो। यो चैकी ग्राम में काले पत्थर के एक टूकड़ें पर एक हजार एक शिवलिंग बने हुए मिले हैं। इस पत्थर खंड की लम्बाई 2 फीट चैड़ाई 1.5 फीट है। गाँव वालों ने उसे स्थापित कर दिया है। यह नारायण पाल द्वारा एक हजार मंदिर निर्माा का संकेत है या किसी शिल्पी काी शिवभक्ति का नमूना कहा नहीं जा सकता। उक्त मंदिर के बगल में एक अष्ट कोणीय कुआँ है, जिसके निर्माण का पता गाँव के बडे़-बूढ़ों को भी नहीं है।

पाल वंश के अंतिम राजा के रूप में इन्द्रद्युमन पाल आया, जिसे 1197 ई॰ में बख्तियार खिलजी ने हराया। वंश के इतिहास से यह साफ हो जाता है कि चैकी का मंदिर उनके काल में था। भले ही कुछ काल के लिये बुद्ध मूत्तियाँ वहां पधरा दी गई हों, किन्तु पुनः देवी देवता वहां पूजित होने लगे थे। मुस्लिम आक्रमण में इनको विनष्ट किया गया। इसका प्रमाण यह ळे कि मुस्लिम आक्रमणकारी सेना का मार्ग इसी होकर था, और मनकट्ठा के बगल में अमहरा में मुस्लिम शासकों की कचहरी थी। स्वाभाविक है कि प्रशासनिक अधिकारियों से विचार विमर्श कर उनके शासक या सेनापति आगे बढ़ेते होगें। इस क्रम में विदेशी मुस्लिम आक्रमणकारी भला मंदिरों को लूटने, उन्हें नष्ट करने से कैसे बाज आ सकते थे। फिर यह क्षेत्र्ा तो वैभवशाली एवं मंदिरों की नगरी थी। पाल राजाओं के इतिहास के पिछले पृष्ठों पर दृष्टि डालने से हमारे समक्ष गुप्त साम्राज्य आ खड़ा होता है, जिसका प्रारंभ 275 ई॰ मान्य है इतिहासकारों के अनुसार शिव-पार्वती, दुर्गा-विष्णु, लक्षमी-गणेश, सूर्य आदि की मूर्तियों का निर्माण बहुत बड़ी संख्या में गुप्त काल में हुआ। चैकी ग्राम में खेत के जमीन के नीचे से भगवती की एक बहुत ही सुन्दर काले पत्थर की मूर्ति पायी गयी थी। इसकी ऊँचाई 4 फीट तथा चैड़ाई 2 फीअ है। कला का बेजोड़ नमूा उस मूर्ति में देखते हुए बनता है। आँखे इतना सजीव हैं कि कुछ क्षण देखते रहने पर लगता है साक्षात देवी के दर्शन हो रहे हैं। इस मूर्ति को भी ग्रामीणों ने एक मंदिर में स्थापित कर दिया है।

गुप्त साम्राज्य से पूर्व 150 ई॰ से प्रारंभ बाकाटक राजवंश का रूद्र सेना धार्मिक भावना का धुनी राजा था। उसने गंगा के सगम स्ािलों पर दस अश्वमेघ यज्ञ सम्पन्न कराये थे। इसके साथ उन्होंने कई शिवमंदिरों का भी निर्माण कराया। इस स्थितियों में इसको नकारा नहीं जा सकता है कि रूद्र सेन ने इस प्रसिद्ध क्षेत्र्ा में, जो कि गंगा एवं किल्लविशी का संगम क्षेत्र्ा है, मंदिर का निर्माण किया हो।

प्राचीन काल का अध्यात्मिक इतिहास अध्ययन लोगों के समक्ष एक बड़ी चुनौती है, क्योंकि इसमें उन्हें बहुत सारी कठिनाईयों का सामना करना पड़ता है। बहुधा ऐसा होता है कि उस काल खंड को कोई प्रत्यक्ष ठोस प्रमाण मिल नहीं पाता। ऐसी स्थिति में किसी काव्य में उसकी चर्चा, यात्र्ाा वृतांत या उस समय के किसी पात्र्ा की अन्यत्र्ा चर्चा तथा युग-युग से चली आ रही जन-जन के हृदय में जमीनी कथाओं को आधार बना इतिहास प्रस्तुत करने की परंपरा रही है। समृद्धि एवं ज्ञान के शीर्ष पर प्रतिष्ठित भारत को लूटने या उस पर शासन करने के उद्देश्य से आये विदेशियों ने जब यहां अतीत की गौरवशाली आधारशिला पर खड़े प्रकाशपूर्ण वत्र्तमान को देखा, सबसे पहले ज्ञानकिरण बाँटने वाला विश्वविद्यालयों को खंडहर बनाया, पुस्तकालयेां को जला कर राख किया और फिर प्राचीन शास्त्र्ाों में उल्लिखित ज्ञान-विज्ञान के तथ्यों को भूलाने, अपने ढंग से उसकी व्याख्या करने में वो लग गये। क्योंकि आत्मबली पर शासन करना कठिन है। जबकि आत्महता उनमें भर देने पर यह काम बहुत सरल एवं आसान हो जाता है। इन सारी समस्याओं के बीच से इतिहास के वास्तविक स्वरूप को बाहर लाना दुःसाध्य कार्य है लेकिन धीरे-धीरे उनको निकाला जा रहा है।
आचार्य रामरघुवीर ने अपनी शोधपूर्ण पुस्तक मुंगेर का ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक भूगोल में इस भूमि का इतिहास प्रस्तुत किया है। उन्होंने प्राचीन शास्त्र्ाों चीनी यात्र्ाी ह्वेनसांग, बेंग्लर, कनिंगहम, दिनेश चन्द्र सरकार जैसे खोजी इतिहासकारों की पुस्तकों, टिप्पणियों के आधार पर सिद्ध किया है कि किउल का क्षेत्र्ा भारत के प्राचीनतम जनपदों में से एक है। यह क्षेत्र्ा प्राचीनकाल से ही सुसंस्कृत था। इसलिए भगवान बुद्ध ने इस भूमि के चप्पे-चप्पे में भ्रमण किया था। आचार्य के अनुसार ह्वेनसांग ने सम्राट अशोक द्वारा लगवाये स्तूप को इस स्थान पर देखा था जो 641 ई॰ में चीन वापस चला गया। उसने बालगुदर ग्राम में पाँच मील के घेरे में एक झील के अस्तित्व का भी जिक्र किया है। कनिंगहम ने इस क्षेत्र्ा के कतिपय शिव, विष्णु, मंदिरों के अवशेष का भी विवरण दिया है। रजौना ग्राम के पूर्व बोद्ध अवशेष टीलों के निकट उन्होंने हरगौरी और गणेश की मूर्तियों को देखा था। गणेश की लगभग चार फीट ऊँची मूर्ति एक गाछ के नीचे रखी थी जिसे हमने भी देखा था। मूर्ति खंडित थी लेकिन अब उसका अता-पता नहीं है।
प्रश्न खड़ा होता है कि वह कौन थे, जिनके इस स्थान में रहने या उनके आगमन, भूभाग से इसको जानने के लिए पुराण महाभारत के पृष्ठों में जाना होगा। पुराणों महाभारत (संक्षिप्त महाभारत पृष्ठ 42-45) के अनुसार नहुष पुत्र्ा थयाति की दों पत्नियाँ थी। शुक्राचार्य की पुत्र्ाी देवयानी और असुरराज वृषपर्वा की पुत्र्ाी शर्मिष्ठा से उत्पन्न तीन पुत्र्ाों में एक था अनु। हालांकि पिता को योगदान नहीं करने के कारण वह उनका उत्तराधिकारी तो नहीं बन सका, लेकिन अन्यत्र्ा जाकर वह वहाँ का राजा बन गया इसी के वंश में आया कृमि, जिसने क्रिमिला नगर बसाया यही क्रिमिला आज किउल नाम से विख्यात है। क्रिमिला की सीमा गंगा और किउल से बंधी है। गंगाा दो स्थानों, रेहुआ और सूर्यगढा में हरोहर एवं किउल नदियों से मिल संगम स्ािल बनाती है। इन दोनों स्ािानों पर बहुत प्राचीन नगर के अवशेष पाये जाते हैं यथा, सूर्यगढा, क्रिमिला, साम्हो, रामचन्द्रपुर, मानो-रामपुर।

लेकिन गौरवपूर्ण स्ािल होना एक बात है किन्तु कोई स्थान पावन, पूज्य और धार्मिक बन जाय, यह पृथक बात है। इसके लिए रामायण काल में प्रवेश करने निदान मिल सकता है। दशरथा के मित्र्ा, अंगदेश राजा रोमपद ने विभांडक श्रषि के पुत्र्ा श्रृंगिऋषि को वेश्याओं के कामजाल में फंसाकर वर्षा के लिए अपने राज्य में मंगवाया था और उनके आते ही जब वर्षा हो गयी, उन्होंने अपनी पोषिता पुत्र्ाी महाराज दशरथ की कन्या शांता से उनका विवाह रच दिया कहीं रोप मद की कन्या शांता को दशरथ की पोषिता पुत्र्ाी भी कहा गया है। जो भी प्रत्येक स्थिति में श्रृंगिऋषि राम के बहनोई हुए। श्री राम के धरती पर अवतरित कराने में पुत्र्ोष्ठि यज्ञ करानेवाले श्रृंगिऋषि ही थे। इसलिये श्री राम उनके दर्शनार्थ क्रिमिला नगर आये थे। जहाँ से 8 मील की दूरी पर पर्वत पर अवस्थित है श्रृंगिऋषि आश्रम स्ािल। उस समय आवागमन के लिए सबसे उपयुक्त जल मार्ग ही था। इसलिए भगवान राम ने हरोहर के किनारे उत्तर सर्वप्रथम अपने आराध्य शंकर की पूजा की थी। संभव है पार्थिव शिवलिंग का ही पूजन उन्होंने किया हो लेकिन, जिस स्ािल पर राम ने अपने हाथों शिव पर जर्लापण किया, उनकी पवित्र्ाता में कोई सन्देह नहीं रह जाता। यही कारण है कि विभिनन काल खंडों में वहांँ शिव मंदिर टूटते-बनते रहें किन्तु, प्रसिद्धि में निखार ही आता गया। तभी भगवान बुद्ध को भी आना पड़ा।

बालगुदर रजौना-चैकी का एक-एक टीला मंदिर और वहाँ विराजमान भगवान की मूर्तियों को छिपाये हुए है। पुरातत्व विभाग को टीलों की खुदाई करवानी चाहिए। बालगुदर के टीले जो अशोक धाम प्रवेश द्वारा के निकट है पर बेग्लर ने 1862 ई॰ में एक बड़े आकार का चतुर्मुख शिवलिंग देखा था। जो भी हो, खुदाई के बाद ही टीले में छिपे प्राचीन गौरव तथा भागवत मूर्तियों के दर्शन हो सकतें।

लोगों की भावनाओं से परिचित हो, उन्हीं के सहयोग से मंदिर निर्माण समिति ने यहां मंदिर की रचना की। इस में डा॰ श्याम सुन्दर प्रसाद सिंह, डा॰ श्रीमति राजकिशोरी सिंह, डा॰ प्रवीण, राजेन्द्र सिंघानिया, सीताराम सिंह, नवल कनोडिया की श्रमपूर्ण सक्रियता आजतक बनी हुई है। इन शिवभक्तों ने जन सहयोग से एक भव्य, चित्ताकर्षक, प्राचीन और आधुनिक शैली मिश्रित शिव मंदिर बना सबका जो स्नेह प्यार, अर्जित किया है, पे्ररणादायक है। अब तो प्रांगण में माँ पार्वती, दुर्गा, नन्दी के अलग-अलग मंदिर भी सुशोभित हो चुके है।

लगता है, एक बार फिर यह मंदिरों की नगरी बनेगा, जिससे जन-जन प्राप्त करेगा धन-वैभव, आध्यात्मिक उत्कर्ष और शांति। इतिहास बनेगा वत्र्तमान, जिस पर देश करेगा गर्व।

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